*"'तारीफ़' करती है जिस दिन ये दुनिया 'बहुत' मेरी,*
*मैं घर जाकर 'आईने' में 'असलियत' देख लेता हूँ।*
*मेरी 'आवाज़' कभी उनकी आवाज़ से 'ऊँची' नहीं होती,*
*मैं अपने 'वालिद' की आँखों में अपना 'बचपन' देख लेता हूँ।*
*अपनी 'तन्हाई' पर जब 'तरस' आने लगता है मुझको,*
*मैं 'खिड़की' खोलकर उस 'चाँद' को देख लेता हूँ।*
*बहुत 'बेचैन' हो जाता है जब 'कभी' भी दिल मेरा,*
*मैं 'घर' जाकर अपनी 'माँ' का 'चेहरा' देख लेता हूँ।*
*खुदा से 'शिकायत' नहीं कर पाता मैं किसी 'बात' की,*
*मस्जिद' के रास्ते में रोज़ एक 'ग़रीब' को देख लेता हूँ।*
*इस 'जहाँ' की 'मोहब्बत' जब बहुत 'ज़्यादा' होने लगती है,*
*सड़क' पर पड़े किसी परिंदे का 'घोंसला' देख लेता हूँ।*
*नहीं 'चढ़ता' है मुझ पर कभी दौलत का 'ख़ुमार',*
*अक्सर' किसी 'जनाज़े' को गुज़रते देख लेता हूँ।*
*मैं घर जाकर 'आईने' में 'असलियत' देख लेता हूँ।*
*मेरी 'आवाज़' कभी उनकी आवाज़ से 'ऊँची' नहीं होती,*
*मैं अपने 'वालिद' की आँखों में अपना 'बचपन' देख लेता हूँ।*
*अपनी 'तन्हाई' पर जब 'तरस' आने लगता है मुझको,*
*मैं 'खिड़की' खोलकर उस 'चाँद' को देख लेता हूँ।*
*बहुत 'बेचैन' हो जाता है जब 'कभी' भी दिल मेरा,*
*मैं 'घर' जाकर अपनी 'माँ' का 'चेहरा' देख लेता हूँ।*
*खुदा से 'शिकायत' नहीं कर पाता मैं किसी 'बात' की,*
*मस्जिद' के रास्ते में रोज़ एक 'ग़रीब' को देख लेता हूँ।*
*इस 'जहाँ' की 'मोहब्बत' जब बहुत 'ज़्यादा' होने लगती है,*
*सड़क' पर पड़े किसी परिंदे का 'घोंसला' देख लेता हूँ।*
*नहीं 'चढ़ता' है मुझ पर कभी दौलत का 'ख़ुमार',*
*अक्सर' किसी 'जनाज़े' को गुज़रते देख लेता हूँ।*
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